2 जून, सन् 1990 (गायत्री जयंती) की प्रात:काल का समय था। ब्राह्ममुहूर्त था, वंदनीया माताजी को, परिजनों को क्या कहना है एवं आगे कैसे कार्य करना है, यह संदेश परमपूज्य गुरुदेव ने दिया एवं फिर दोनों ने एकदूसरे से अंतिम विदाई ली। माताजी ने लगभग सात हजार व्यक्तियों को जो शांतिकुंज, हरिद्वार में थे, करुणासिक्त अंत:करण से निकली वाणी से अपने आराध्य का संदेश सुनाया। जैसे ही गीत—‘माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं’ प्रारंभ हुआ उसी के साथ गुरुदेव के हाथ नमन की मुद्रा में ऊपर उठे एवं हृदय की धड़कन बंद हो गई। प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। गायत्री जयंती पर आए हुए समस्त परिजनों ने जब भोजन-प्रसाद ग्रहण कर लिया, उसके बाद पूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण का समाचार बताया गया एवं उसी दिन सायंकाल अन्त्येष्टि संस्कार संपन्न हो गया।
वे अपनी शक्ति वंदनीया माताजी को हस्तांतरित कर गए थे। उन्हीं के माध्यम से सारे परिजनों को ममत्व, दैनंदिन जीवन तथा लोकसेवा के क्षेत्र से नवनिर्माण से जुड़ा मार्गदर्शन सतत मिलता रहा। निधि के रूप में विनिर्मित शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, प्रज्ञा संस्थान, पच्चीस लाख सक्रिय भावनाशीलों का परिवार तथा चिंतन चेतना के रूप में प्रचुर मात्रा में युगसाहित्य लिखकर छोड़ गए हैं।