भावन्त:वा इमां पृथिवी वित्तेन पूर्णमद तल्लोकं जयति त्रिस्तावन्तं  जयति भूयां सेवाक्षम्यय एवं विद्वान अहरह स्वाध्यायमधीते। —शतपथ ब्राह्मण

गायत्री परिवार की विस्तार प्रक्रिया

चौबीस-चौबीस लाख के चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति, अखंड अग्नि की स्थापना एवं गायत्री तपोभूमि की स्थापना सन् 1953 में संपन्न हुईं। मथुरा में सन् 1955 में महामृत्युंजय यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शतचंडी यज्ञ एवं नवग्रह यज्ञ भी संपन्न हुए। सन् 1956 में अप्रैल 20 से 24 तक 108 कुंडीय नरमेध यज्ञ संपन्न हुआ और आचार्य जी के तपोबल से जनशक्ति जुटती चली गई।

1956 में ही गायत्री परिवार सदस्यता फार्म प्रकाशित किया गया । 1956 के नरमेध यज्ञ में आए हुए परिजनों ने गायत्री परिवार का सदस्य लोगों को बनाया तथा गायत्री परिवार की शाखाएँ खुलनी आरंभ हुईं । 7 से 12 जून, 1957 में प्रथम बार अखिल भारतीय गायत्री परिवार का सम्मलेन गायत्री तपोभूमि में सफलता के साथ संपन्न हुआ ।

सन् 1958 में सहस्रकुंडीय महायज्ञ में लाखों व्यक्ति आए और मिशन के होते चले गए। मथुरा-वृंदावन मार्ग पर 7 मील के घेरे में पाँच दिन तक नि:शुल्क निवास, भोजन, यज्ञ आदि का प्रबंध किया गया। किस प्रकार व्यवस्था की गई, किसने की, कितना खरच हुआ—इस संबंध में सही बात कदाचित् ही किसी को मालूम हो। इतना विशाल यज्ञ महाभारत के उपरांत प्रथम बार हुआ। उसके बाद तेजी से गायत्री परिवार का विस्तार होता चला गया। व्यवस्था का भार माताजी पर ही था। सन् 1959 से 1961 तक पत्रिका-संपादन का कार्य माताजी को सौंपकर आचार्य जी गुरुसत्ता से मार्गदर्शन हेतु हिमालय चले गए। आर्ष साहित्य की अमूल्य निधि जो आचार्य जी की लेखनी से निकली है, वह हिमालय से लौटकर सृजन की गई। वृहद विश्वकोश स्तर का तीन खंडों में ‘गायत्री महाविज्ञान’ प्रकाशित हुआ।

आचार्य जी ने सन् 1963 में युग निर्माण योजना की रूपरेखा व युग निर्माण सत्संकल्प के रूप में मिशन का घोषणा पत्र प्रकाशित किया। उसी समय राष्ट्रव्यापी समाज निर्माण के कार्यक्रमों का सफल क्रियान्वयन हुआ जैसे—गायत्री यज्ञों का संचालन, सारे देश में मंत्रलेखन-साधना का प्रसार। हिमालय से जब आचार्य जी आए, तभी घोषणा कर दी थी कि वे दस (10) वर्ष के लिए आए हैं और सन् (1971) में अनिश्चितकाल के लिए हिमालय चले जाएँगे तथा मथुरा छोड़ देंगे। गायत्री तपोभूमि मथुरा में गतिविधियाँ तेज होने लगीं तथा शिविर लगाए जाने लगे, जिनमें जीवन जीने की कला, चांद्रायण व्रत, संजीवनी साधना, नवरात्र अनुष्ठान करने व्यक्ति आने लगे एवं आत्मबल संपन्न लोकसेवियों का निर्माण होने लगा। आचार्य जी का उद्देश्य था—अखिल विश्व में आस्तिकता, अध्यात्म दर्शन, गायत्री का प्रचार-प्रसार कर व्यक्ति को मानव जीवन की गरिमा का बोध कराना। आचार्य जी चाहते थे मनुष्य में देवत्व जगे, समस्त वसुधा पर स्वर्ग जैसा वातावरण बन सके। भवनों के निर्माण से कई गुना अधिक कठिन होता है—व्यक्तियों का निर्माण, ऐसे लोकसेवी जो युगनेतृत्व कर सकें।

अपने इष्ट (आचार्य जी) का हर आदेश माताजी ने एक शिष्या की भाँति निभाया और सुचारु रूप से पूर्ण किया। अखंड दीपक को निरंतर रात-दिन प्रज्वलित रखने का कार्य माताजी ने ही सँभाला। शांतिकुंज हरिद्वार में अखंड दीपक के समक्ष देवकन्याओं द्वारा नित्य जप करने का नियम बनाया गया था।

पूज्यगुरुदेव ने 1972 में  हिमालय से आकर, विदेशों में गायत्री परिवार बनाने तथा भारतीय संस्कृति को जन-जन तक पहुँचाने हेतु स्वयं दिसंबर 1972 में विदेश यात्रा की, जिससे कई अफ्रीकी देश तथा अन्य देशों में गायत्री परिवार उनके प्रयत्नों से बनता-फैलता चला गया।

1979-80 में शक्तिपीठें बननी प्रारंभ हुईं, सारे देश में इनकी संख्या 5000 के ऊपर अब तक पहुँच गई। अश्वमेध यज्ञों ने गायत्री परिवार को बहुत विस्तार दिया। अब स्थिति यह है कि विश्व में लगभग 80 देशों  में गायत्री परिवार कार्य कर रहा है तथा इस परिवार से जुड़े परिजनों की संख्या 12 करोड़ से अधिक हो चुकी है।

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